दिल को खलता है ये शुष्क-कोरा कागज,
पर इसे अल्फाज़ो में भिगौना अच्छा नहीं लगता |
हर लम्हे को फुरसत से जीना चाहता हुँ |
पर इस जहाँ में इक पल बिताना अब अच्छा नहीं लगता |
लफ्ज़, लबों से बाहर निकलने की मशक्कत करते है,
पर उन्हें आवाज़ में पिरौना अब अच्छा नहीं लगता |
मय से इक रूहानी सुकूं मिलता है,
पर न जाने क्यों मैख़ाने में जाना अब अच्छा नहीं लगता |
उसे अपलक निहारने की अज़ीब सी दिल्लगी रहती है,
पर उन तंग गलियों में जाना अब अच्छा नहीं लगता |
उनके खयालो में खोया रहना चाहता हुँ,
पर यूं बेवजह रात-रात भर रोना अब अच्छा नहीं लगता |
Aniruddh Nandwana
Y13 Undergraduate, The LNMIIT
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