Showing posts with label Aniruddh Nandwana. Show all posts
Showing posts with label Aniruddh Nandwana. Show all posts

Thursday, 25 September 2014

बेबसी




दिल को खलता है ये शुष्क-कोरा कागज,
पर इसे अल्फाज़ो में भिगौना अच्छा नहीं लगता | 

हर लम्हे को फुरसत से जीना चाहता हुँ | 
पर इस जहाँ में इक पल बिताना अब अच्छा नहीं लगता | 


लफ्ज़, लबों से बाहर निकलने की मशक्कत करते है,
पर उन्हें आवाज़ में पिरौना अब अच्छा नहीं लगता | 

मय से इक रूहानी सुकूं मिलता है,
पर न जाने क्यों मैख़ाने में जाना अब अच्छा नहीं लगता | 


उसे अपलक निहारने की अज़ीब सी दिल्लगी रहती है,
पर उन तंग गलियों में जाना अब अच्छा नहीं लगता | 


उनके खयालो में खोया रहना चाहता हुँ,
पर यूं बेवजह रात-रात भर रोना अब अच्छा नहीं लगता | 



Aniruddh Nandwana
Y13 Undergraduate, The LNMIIT

Saturday, 22 February 2014

वक्त


चलो न वक्त ए दरिया में उतरे | 
उसमे बह रहे लम्हों को पकड़ कर गोते लगाए,
हर पल की कैफियत को तस्स्वुर से निहारें,
इसमें डूब रहे फसानो को बाँहों में लेलें | 

चलो न वक्त ए दरिया में उतरे |
इसमें अपना चेहरा देखें और खुद की शिनाख्त करें 
आओ न इस दरिया में हाथों की लकीरों को मिटा डालें,
और अपने मुस्तकबिल को मुकम्मल बना लें | 

चलो न वक्त ए दरिया में उतरे |
इसमें कांटा डाले और मुख्तलिफ लम्हातो 
में से खुशनुमा पलो को पकडे,
आओ हम इसमें घुली गम की गर्दो को अलग कर लें | 

चलो न वक्त ए दरिया में उतरे |
आशाओ की कश्ती में होंसलो की बादबानी बांधे,
एक जुनूनी सी पतवार थामे,
इसमें आने वाली अज़ाब ए लहरो का सामना करें,
कहीं दूर चले, बहते चलें, फिरदौस चलें |



Aniruddh Nandwana
Y13 Undergraduate, The LNMIIT